शनी का प्रकोप होने के डर से गाँव वालों ने शनी शिंगणापूर के पत्थर को जिसे शनी माना जाता है, उसे दूध से नहला दिया। एक महिला ने अनजाने में शनी के चबुतरे पर चढकर शनी के पत्थर को हाथ लगाकर शनीकी पूजा की, नमन किया और लौट आई।महिला के शनी पूजन से शनी कितना रूष्ट हुआ पता नहीं पर गाँव वाले जरूर तिरमीरा उठे। न जाने अब इस वजह से कौन सा संकट आएगा।
पिछले कई सालोंसे महाराष्ट्र के अहमदनगर जिलें में स्थित शनी शिंगणापुर नाम का गाँव पुरे देश में मशहूर है। शनी के कोप से बने के लिए या फिर शनी से पीछा छुडवाने के लिए लाखों भक्त यहाँ आते रहते है। शनी के पत्थर पर करोंडों का तेल चढता है। शनी की शांती करने के लिए न जाने क्या क्या करते है लोग।कई अघोरी बाबांओं को भी इसी शनी ने जन्म दिया है। पता नहीं ऐसा करने से कितने लोगोंके दु:ख खत्म हुए, लेकीन एक बात है की इन प्रथा-परंपराओंने कई समस्याओं को जन्मदिया है।
शनी शिंगणापुर में शनी के चबुतरे पर महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है। शनी के बाल ब्रम्हचारी होने की वजह से ऐसा नियम वहाँ पर लागू है। कई सालोंसे से महाराष्ट्र जैसे राज्य में चल रहीं इस प्रथा का विरोध हो रहा था। अंधश्रद्धा निर्मुलन समिती (अंधविश्वास उन्मुलन समिती ) कई सालोंसे से इस प्रथा केविरोध में आंदोलन कर रहीं है। लेकीन शनी का डर इतना है कि ये प्रथा टूट नहीं पाई।
शनी पर लोगों का भरोसा इसलिए भी है क्योंकि इस गाँव में घरों के दरवाजों को कूंडी नहीं होती। चोर यहाँ पर चोरी करें तो सामान बाहर नहीं ले जा सकता ऐसी मान्यता है।बावजूद इसके यहाँ पर इक्का-दुक्का चोरीयाँ भी हुई है। शनी शिंगणापूर की इस दहशत चोरों में भी है। और महिलाओं में भी। इसलिए महिलाओं के दर्शन को लेकर पाबंदी के खिलाफ बोलने से लोग डरते है।
एक महिलाने शनी का दर्शन लेकर कई भ्रमोंको तोडा है। इस महिला के दर्शन के बाद गाँवमें स्थिती तनावपूर्ण जरूर है लेकीन अभी वो शनी का कथित प्रकोप कहीं नहीं दिखा। इस दर्शन ने फिर उस बहस को छेडा है, जो कई सालोंसे चल रही है। क्या महिलाओं का समाज में स्थान दुय्यम है? मासिक धर्म की बात को अपवित्र मानने वाले हमारा समाज क्या अभी भी अश्मयुग में जी रहा है? महिलाके मासिक धर्म को लेकर उसको अपवित्र मानने वाला समाज गाय के दूध से उसी शनीका शुद्धीकरण कैसे कर लेता है? और सबसे बडा सवाल भक्तों में भेद करने वाले मंदिरोंका बहिष्कार क्यों न किया जाए?
पिछले कई दिनों से #HappyToBleed कैम्पेन चल रहा है। महिला होने पर अभिमान व्यक्त करने वाली महिलाओं को शनीशिंगणापुर ने एक और चुनौती दी है। देश के संविधान ने जब सभी धर्म और धर्माचरण का हक दिया है तो ये फिर कौन लोग है जो भगवान के द्वार के दरबान हुए बैठे है। क्या शनी अपनें कोई वसीहत लिख गए है जिनमें सारे अधिकार शनी शिंगणापूर के गाँववालों को सौंप गए है?
इन मुद्दोंसे पर गंभीरता से विचार होना जरुरी है। मंदिर और गाँववालें तो सुनने से रहे, पर धर्म की चौखट देखिए कितनी मजबूत है,लगभग सारी महिलाएं भी इन बातों से अनुकूल है। शनी शिंगणापूर के कई महिलाओंने यहीं कहा है कि चबुतरे पर जाकर दर्शन लेना गलत ही है। महिलाएँ ख़ुद ही ख़ुद को अपवित्र मान रहीं है, ये कोई ख़ुद कीविचारधारा नहीं है। बरसों से हारी हुई लड़ाईने उन्हें अब लड़ने से रोका है। अब वो इस बात को जान चूँकी है की इस लड़ाई को कोई अंत नहीं है।
महाराष्ट्र के समृद्ध विचारधारा में जिसवारकरी संप्रदाय का सबसे बड़ा योगदान रहा है। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, से लेकर मुक्ताबाई, कान्होपात्रा और उसके बाद भी न जाने कितने ही क्रांतिकारी संतों का योगदान इस महाराष्ट्र की भूमि के निर्माण में रहा।वारकरी संप्रदाय में महिलाओं को बराबर का स्थान मिला है फिर भी अजानवृक्ष के पास महिलाओं को प्रवेश नहीं था। दो-तीन साल पहले इस प्रथा का विरोध करने के बाद अब महिलाओं के प्रवेश पर विचार चल रहा है।
कई लोग पुछते है कि क्या फ़र्क़ पड़ता है मंदिर में प्रवेश ना मिले तो? सही सवाल है,अगर सोचना नहीं है तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अगर कोई महिला दर्शन ना ले तो.. लेकिन अगर सोचें त बहुत फ़र्क़ पड़ता है। हम बचपनसे ही लड़कियों को ये जताते है कि बस तुम्हारा दर्जा दूसरे नंबर का है। हम अपनी राज्यघटना का अपमान करते है। हम दलित उत्थान की बात करते है पर महिलाओं को अभी भी इन्सान का दर्जा नहीं देते। हम प्रकृति को नकारते है जिसने महिलाओं को प्रजनन सक्षम बनाया, मासिक धर्म तो उसका एक हिस्सा है। हम किसी महिलाको नहीं बल्कि माँ को रोकते है।
फ़र्क़ बहुत कुछ पड़ता है पर दिखता नहीं क्योंकि महिलाओं ने लड़ना शुरू नहीं किया है। फ़र्क़ तो तब पड़ेगा जब महिलाएँ ऐसेमंदिंरोंको ही नकार दे। फ़र्क़ तब पड़ेगा जब भेदभाव जगाने वाले भगवानों को लोग पूजनेसे मना कर दे। एक महिलाने पूज लिया तो भगवान अगर हिल जाते है तो नकार दे तो क्या होगा?
जो भगवान सर्वशक्तिमान है, वो अपने आपको नहीं बचा पाया ये भी सोचने वाली बात है।और लोग सोचना शुरू कर दे तो फ़र्क़ पड़ेगा।
नारी को भगवान बन कर पुजने वाले समाज में क्या उस वक़्त किसी को मासिक धर्म की 'अपवित्रता' ध्यान में नहीं आई होगी? अगर आई होगी और उसके बावजूद नारी को अगर भगवान को दर्जा दिया गया होगा तो क्या आज महिलाओं पर पाबंदी डालकर हम अपने पुरखों का अपमान नहीं कर रहें है,जिन्होंने बड़ी सोच समझकर भगवानों का निर्माण किया था।
डर लगता था इसलिए भगवान बनाया, अब स्थिति ऐसी आई है कि भगवान से डर लग रहा है। इस डर को ख़त्म करना होगा और सुधारणाओं के प्रवाह को आगे बढ़ाना होगा।वरना इस देश में भगवान को नकारने का इतिहास भी पूराना है।
@ravindraAmbekar
Raviamb@gmail.com
पिछले कई सालोंसे महाराष्ट्र के अहमदनगर जिलें में स्थित शनी शिंगणापुर नाम का गाँव पुरे देश में मशहूर है। शनी के कोप से बने के लिए या फिर शनी से पीछा छुडवाने के लिए लाखों भक्त यहाँ आते रहते है। शनी के पत्थर पर करोंडों का तेल चढता है। शनी की शांती करने के लिए न जाने क्या क्या करते है लोग।कई अघोरी बाबांओं को भी इसी शनी ने जन्म दिया है। पता नहीं ऐसा करने से कितने लोगोंके दु:ख खत्म हुए, लेकीन एक बात है की इन प्रथा-परंपराओंने कई समस्याओं को जन्मदिया है।
शनी शिंगणापुर में शनी के चबुतरे पर महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी है। शनी के बाल ब्रम्हचारी होने की वजह से ऐसा नियम वहाँ पर लागू है। कई सालोंसे से महाराष्ट्र जैसे राज्य में चल रहीं इस प्रथा का विरोध हो रहा था। अंधश्रद्धा निर्मुलन समिती (अंधविश्वास उन्मुलन समिती ) कई सालोंसे से इस प्रथा केविरोध में आंदोलन कर रहीं है। लेकीन शनी का डर इतना है कि ये प्रथा टूट नहीं पाई।
शनी पर लोगों का भरोसा इसलिए भी है क्योंकि इस गाँव में घरों के दरवाजों को कूंडी नहीं होती। चोर यहाँ पर चोरी करें तो सामान बाहर नहीं ले जा सकता ऐसी मान्यता है।बावजूद इसके यहाँ पर इक्का-दुक्का चोरीयाँ भी हुई है। शनी शिंगणापूर की इस दहशत चोरों में भी है। और महिलाओं में भी। इसलिए महिलाओं के दर्शन को लेकर पाबंदी के खिलाफ बोलने से लोग डरते है।
एक महिलाने शनी का दर्शन लेकर कई भ्रमोंको तोडा है। इस महिला के दर्शन के बाद गाँवमें स्थिती तनावपूर्ण जरूर है लेकीन अभी वो शनी का कथित प्रकोप कहीं नहीं दिखा। इस दर्शन ने फिर उस बहस को छेडा है, जो कई सालोंसे चल रही है। क्या महिलाओं का समाज में स्थान दुय्यम है? मासिक धर्म की बात को अपवित्र मानने वाले हमारा समाज क्या अभी भी अश्मयुग में जी रहा है? महिलाके मासिक धर्म को लेकर उसको अपवित्र मानने वाला समाज गाय के दूध से उसी शनीका शुद्धीकरण कैसे कर लेता है? और सबसे बडा सवाल भक्तों में भेद करने वाले मंदिरोंका बहिष्कार क्यों न किया जाए?
पिछले कई दिनों से #HappyToBleed कैम्पेन चल रहा है। महिला होने पर अभिमान व्यक्त करने वाली महिलाओं को शनीशिंगणापुर ने एक और चुनौती दी है। देश के संविधान ने जब सभी धर्म और धर्माचरण का हक दिया है तो ये फिर कौन लोग है जो भगवान के द्वार के दरबान हुए बैठे है। क्या शनी अपनें कोई वसीहत लिख गए है जिनमें सारे अधिकार शनी शिंगणापूर के गाँववालों को सौंप गए है?
इन मुद्दोंसे पर गंभीरता से विचार होना जरुरी है। मंदिर और गाँववालें तो सुनने से रहे, पर धर्म की चौखट देखिए कितनी मजबूत है,लगभग सारी महिलाएं भी इन बातों से अनुकूल है। शनी शिंगणापूर के कई महिलाओंने यहीं कहा है कि चबुतरे पर जाकर दर्शन लेना गलत ही है। महिलाएँ ख़ुद ही ख़ुद को अपवित्र मान रहीं है, ये कोई ख़ुद कीविचारधारा नहीं है। बरसों से हारी हुई लड़ाईने उन्हें अब लड़ने से रोका है। अब वो इस बात को जान चूँकी है की इस लड़ाई को कोई अंत नहीं है।
महाराष्ट्र के समृद्ध विचारधारा में जिसवारकरी संप्रदाय का सबसे बड़ा योगदान रहा है। संत ज्ञानेश्वर, तुकाराम, एकनाथ, से लेकर मुक्ताबाई, कान्होपात्रा और उसके बाद भी न जाने कितने ही क्रांतिकारी संतों का योगदान इस महाराष्ट्र की भूमि के निर्माण में रहा।वारकरी संप्रदाय में महिलाओं को बराबर का स्थान मिला है फिर भी अजानवृक्ष के पास महिलाओं को प्रवेश नहीं था। दो-तीन साल पहले इस प्रथा का विरोध करने के बाद अब महिलाओं के प्रवेश पर विचार चल रहा है।
कई लोग पुछते है कि क्या फ़र्क़ पड़ता है मंदिर में प्रवेश ना मिले तो? सही सवाल है,अगर सोचना नहीं है तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता अगर कोई महिला दर्शन ना ले तो.. लेकिन अगर सोचें त बहुत फ़र्क़ पड़ता है। हम बचपनसे ही लड़कियों को ये जताते है कि बस तुम्हारा दर्जा दूसरे नंबर का है। हम अपनी राज्यघटना का अपमान करते है। हम दलित उत्थान की बात करते है पर महिलाओं को अभी भी इन्सान का दर्जा नहीं देते। हम प्रकृति को नकारते है जिसने महिलाओं को प्रजनन सक्षम बनाया, मासिक धर्म तो उसका एक हिस्सा है। हम किसी महिलाको नहीं बल्कि माँ को रोकते है।
फ़र्क़ बहुत कुछ पड़ता है पर दिखता नहीं क्योंकि महिलाओं ने लड़ना शुरू नहीं किया है। फ़र्क़ तो तब पड़ेगा जब महिलाएँ ऐसेमंदिंरोंको ही नकार दे। फ़र्क़ तब पड़ेगा जब भेदभाव जगाने वाले भगवानों को लोग पूजनेसे मना कर दे। एक महिलाने पूज लिया तो भगवान अगर हिल जाते है तो नकार दे तो क्या होगा?
जो भगवान सर्वशक्तिमान है, वो अपने आपको नहीं बचा पाया ये भी सोचने वाली बात है।और लोग सोचना शुरू कर दे तो फ़र्क़ पड़ेगा।
नारी को भगवान बन कर पुजने वाले समाज में क्या उस वक़्त किसी को मासिक धर्म की 'अपवित्रता' ध्यान में नहीं आई होगी? अगर आई होगी और उसके बावजूद नारी को अगर भगवान को दर्जा दिया गया होगा तो क्या आज महिलाओं पर पाबंदी डालकर हम अपने पुरखों का अपमान नहीं कर रहें है,जिन्होंने बड़ी सोच समझकर भगवानों का निर्माण किया था।
डर लगता था इसलिए भगवान बनाया, अब स्थिति ऐसी आई है कि भगवान से डर लग रहा है। इस डर को ख़त्म करना होगा और सुधारणाओं के प्रवाह को आगे बढ़ाना होगा।वरना इस देश में भगवान को नकारने का इतिहास भी पूराना है।
@ravindraAmbekar
Raviamb@gmail.com
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