राज की रैली के पीछे का राज...
मुंबई में हुई हिंसा के बाद अब आप मानो ना मानो हिंदू और मुस्लीमों के बीच ध्रुवीकरण शुरू हो गया हैं। 1992 के दंगो के बाद मुंबई में कोई भी धार्मीक जंग नहीं हुई. हिंसा से लोग किनारा कर चुके हैं। दंगो की याद भी अब लोगों को नहीं चाहीए. इसिलिए गोधरा के बाद भी मुंबई में आग नहीं लग पाई। बम विस्फोटों के बाद भी यहां पर कभी दो धर्म के लोगों के बीच माहौल नहीं बिगडा। कौन लोग हैं जो मुंबई की फिज़ा बिगाडना चाहते हैं ये बात अब सभी को पता चल गई हैं।
शायद यहीं वजह हैं कि आझाद मैदान में हुई हिंसा के वीडियो अगर हम देखें तो उसमें हमें साफ तौर पर दिख जाएगा की जब कुछ गुंडे मीडिया की ओबी वैन जला रहे थे, तब एक - दो युवा उन्हे रोकने के लिए आगे बढे..ये मुस्लीम युवक ही थे.. उन्होंने हुडदंगकारीयों को रोकने की कोशीश की लेकिन उन गुंडों ने उनपर भी हाथ उठाया.. यु ट्यूब पर ये वीडियो उपलब्ध हैं। मुंबई हिंसा के बाद उसकी प्रतिक्रीया भी नहीं आई.... ।
लेकिन क्या हम इन संकेतों को देखकर मान ले की सब कुछ खत्म हुआ हैं। जहां तक मेरा मानना हैं यहा से शुरूआत हो चुकी हैं.. हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण की....
मुंबई में हुई हिंसा के बाद सभी पार्टीयों मे शांति बनाए रखने का आवाहन किया। शिवसेना - बीजेपी जो केवल हिंदुत्व के मुद्दे पर फोकस रखती हैं वो भी इस समय शांत रहे.. नसीम खान, अबु आसिम आझमी जैसे मुस्लीम नेता हिंसा की वजह से चुप बैठे थे..रझा अकादमी ने माफी मांग कर स्थिती को सुधारने की कोशीश की...
लेकिन ये सब कुछ इतने जल्दी शांत होगा ऐसे मुझे नहीं लग रहा... खास कर के तब जब मुंबई हिंसा के जख्मी पुलिसवालों के मुद्दे को लेकर जनता में आक्रोश की स्थिती पैदा हो गई और स्थानीय मीडिया ने भी सरकार पर सवाल उठाना शुरू कर दिए.. ऐसे में नेताओं को भी अब अपनी अपनी वोटबैंक को मजबूत करने का मौका मिल गया। 11 अगस्त को हुतात्मा चौक में बने अमर जवान स्मृती स्तंभ पर हुआ हमला अब अस्मिता का विषय बन चुका हैं। महिला पुलिसकर्मी के कपडें फाडकर उसका मोलेस्टेशन अब प्रचार का विषय बन गया हैं। सेक्युलर कहे जाने वाले लोग ऐसे वक्त पर शिवसेना जैसी ताकतों की कैसे जरूरत हैं इस पर बात कर रहे हैं। कई संपादक तो शिवसेना जैसे संगठन की जरूरत होने की नीजी राय रखते हैं। ऐसे में रह रह कर लग रहा हैं कि ये शांति असली नहीं हैं।
11 अगस्त को जो कुछ हुआ उसके बाद बीजेपी ने एक रैली निकाली लेकिन उसमें बीजेपी के सारे वॉर्ड अध्यक्ष भी शायद शामील नहीं हुए। शिवसेना के कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे का बयान आया लेकिन सामना को छापने के लिए एक और न्यूज इसके अलावा उस बयान के कुछ मायने दिख नहीं रहे हैं। यहीं मौका था जिसे कैश करने का प्रयास राज ठाकरे ने किया हैं।
सोशल फैब्रिक की बात हम करते हैं, लेकिन एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा की ये देश 85 फिसदी हिंदूओं का हैं इस बात को भुलाया नहीं जा सकता.. ये सोशल फ्रैब्रिक किन धागों से बुना हैं ये सभी जानते हैं फिर भी इसे नजरअंदाज कर सभी लोग सेक्युलरिजम की बातें करते रहते हैं. मुंबई हिंसा के बाद आझाद मैदान के वीडियो कई केबल नेटवर्क पर दिखाए गए.. कौन दिखा रहा हैं, क्यों दिखा रहा हैं .. इनकी क्या मंशा हैं क्या पुलिस इन बातों से अनजान हैं। जिस तरहके वीडियो देखकर आझाद मैदान पर लोग इकठ्ठा हुए क्या उसी तरह से अब लोग गिरगांव चौपाटी पर इकठ्ठा होंगे। सोशल फैब्रिक की बात करने वाले तमाम लोग ऐसे वक्त पर अंदर से या तो हिंदू हो जाते हैं या फिर मुसलमान या फिर उस धर्म से उससे वो होते हैं... जो पब्लिकली कुछ नहीं कह सकते वो सेक्युलर हो जाते हैं।
आझाद मैदान में हुई हिंसा के बाद खास करके पुलिस के मोरल पर असर पडा हैं। मैने कई पुलिसवालों के साथ बात की हैं, लगभग सारे पुलिसवाले इस वक्त गुस्से और बदले की आग में जल रहे हैं। कुछ गुंडों ने की हुई हिंसा की गाज किसी समुदाय पर पड सकती हैं। ऐसे वक्त ये सरकार की जिम्मेदारी हैं की वो अपनी इस फोर्स की काऊंसलिंग करे। उनके गुस्से को समझे। मंगलवार को राज ठाकरे की रैली में राज ठाकरे मराठी के मुद्दे से निकलकर हिंदुत्व के मुद्दे पर शिफ्ट हो जाएंगे, 92 के दंगों के बाद शिवसेनाप्रमुख बाल ठाकरे ने भी इसी तरह से कदम उठाए थे..बाल ठाकरे के तब के भाषण अगर सुने तो समझ में आएगा की कैसे सिनिअर ठाकरे ने पुलिस के ढलते मनोबल के अपनी ताकत, ढाल बना लिया था, र उसी के बल पर उन्होंने अपनी दहशत मुंबई में कायम की। राज चाचा के नक्शेकदमों पर चल पडे हैं।
राज को इस रैली के लिए मुख्यमंत्री से भी सपोर्ट मिलेगा ये बात भी साफ हैं। ऐसे में मामले को राजनीतिक रंग तो चढेगा ही। राज गृहमंत्री आर आर पाटील के खिलाफ मोर्चा निकाल रहे हैं, सरकार के खिलाफ नहीं... यहीं बात पृथ्वीराज चव्हाण को भी चाहीए। इसलिए एक तरफ पुलिस रैली पर पाबंदी की बात कर रही हैं वहीं पृथ्वीराज चव्हाण ने राज की रैली को हरी झंडी दे दी हैं। राज के माध्यम से पृथ्वीराज चव्हाण एनसीपी पर भी नकेल कसने की कोशीश कर रहे हैं।
मंगलवार की रैली को सफल बनाने के लिए राज ने अपने कार्यकर्ताओं को धमकी ही दी रखी हैं। अगर मोर्चा में लोग नहीं आए तो नए लोग - नई टीम बनाने की धमकी राज ने अपने कार्यकर्ताओं को दी हैं। राज ने अपना रूख साफ किया हैं, पत्ते भी कल खुल जाएंगे.. सरकार की नाकामी मुंबई में एक और दहशत को जन्म देने जा रही हैं... इतिहास अपने आप को दोहराते रहते हैं, पुरानी गलतीयों से हम कुछ सींखते नहीं हैं। अमन की बात करते करते हम ऐसी शक्तीयों को पनपने देते हैं जो पता हैं कि कल जाकर हमारे स्वतंत्रता पर हमला करने वाली हैं.. वक्त की जरूरत बताकर आज भले ही हम इन बातों को नजरअंदाज कर दे लेकिन शाय़द भविष्य में हमें इन घटनाओं के लिए जवाब देने पडेंगे। राज रैली करके निकल जाएंगे.. और हमें भविष्य में इस सोशल फैब्रिक को सीते बैठना पडेगा।
मुंबई में हुई हिंसा के बाद अब आप मानो ना मानो हिंदू और मुस्लीमों के बीच ध्रुवीकरण शुरू हो गया हैं। 1992 के दंगो के बाद मुंबई में कोई भी धार्मीक जंग नहीं हुई. हिंसा से लोग किनारा कर चुके हैं। दंगो की याद भी अब लोगों को नहीं चाहीए. इसिलिए गोधरा के बाद भी मुंबई में आग नहीं लग पाई। बम विस्फोटों के बाद भी यहां पर कभी दो धर्म के लोगों के बीच माहौल नहीं बिगडा। कौन लोग हैं जो मुंबई की फिज़ा बिगाडना चाहते हैं ये बात अब सभी को पता चल गई हैं।
शायद यहीं वजह हैं कि आझाद मैदान में हुई हिंसा के वीडियो अगर हम देखें तो उसमें हमें साफ तौर पर दिख जाएगा की जब कुछ गुंडे मीडिया की ओबी वैन जला रहे थे, तब एक - दो युवा उन्हे रोकने के लिए आगे बढे..ये मुस्लीम युवक ही थे.. उन्होंने हुडदंगकारीयों को रोकने की कोशीश की लेकिन उन गुंडों ने उनपर भी हाथ उठाया.. यु ट्यूब पर ये वीडियो उपलब्ध हैं। मुंबई हिंसा के बाद उसकी प्रतिक्रीया भी नहीं आई.... ।
लेकिन क्या हम इन संकेतों को देखकर मान ले की सब कुछ खत्म हुआ हैं। जहां तक मेरा मानना हैं यहा से शुरूआत हो चुकी हैं.. हिंदू और मुसलमानों के बीच ध्रुवीकरण की....
मुंबई में हुई हिंसा के बाद सभी पार्टीयों मे शांति बनाए रखने का आवाहन किया। शिवसेना - बीजेपी जो केवल हिंदुत्व के मुद्दे पर फोकस रखती हैं वो भी इस समय शांत रहे.. नसीम खान, अबु आसिम आझमी जैसे मुस्लीम नेता हिंसा की वजह से चुप बैठे थे..रझा अकादमी ने माफी मांग कर स्थिती को सुधारने की कोशीश की...
लेकिन ये सब कुछ इतने जल्दी शांत होगा ऐसे मुझे नहीं लग रहा... खास कर के तब जब मुंबई हिंसा के जख्मी पुलिसवालों के मुद्दे को लेकर जनता में आक्रोश की स्थिती पैदा हो गई और स्थानीय मीडिया ने भी सरकार पर सवाल उठाना शुरू कर दिए.. ऐसे में नेताओं को भी अब अपनी अपनी वोटबैंक को मजबूत करने का मौका मिल गया। 11 अगस्त को हुतात्मा चौक में बने अमर जवान स्मृती स्तंभ पर हुआ हमला अब अस्मिता का विषय बन चुका हैं। महिला पुलिसकर्मी के कपडें फाडकर उसका मोलेस्टेशन अब प्रचार का विषय बन गया हैं। सेक्युलर कहे जाने वाले लोग ऐसे वक्त पर शिवसेना जैसी ताकतों की कैसे जरूरत हैं इस पर बात कर रहे हैं। कई संपादक तो शिवसेना जैसे संगठन की जरूरत होने की नीजी राय रखते हैं। ऐसे में रह रह कर लग रहा हैं कि ये शांति असली नहीं हैं।
11 अगस्त को जो कुछ हुआ उसके बाद बीजेपी ने एक रैली निकाली लेकिन उसमें बीजेपी के सारे वॉर्ड अध्यक्ष भी शायद शामील नहीं हुए। शिवसेना के कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे का बयान आया लेकिन सामना को छापने के लिए एक और न्यूज इसके अलावा उस बयान के कुछ मायने दिख नहीं रहे हैं। यहीं मौका था जिसे कैश करने का प्रयास राज ठाकरे ने किया हैं।
सोशल फैब्रिक की बात हम करते हैं, लेकिन एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा की ये देश 85 फिसदी हिंदूओं का हैं इस बात को भुलाया नहीं जा सकता.. ये सोशल फ्रैब्रिक किन धागों से बुना हैं ये सभी जानते हैं फिर भी इसे नजरअंदाज कर सभी लोग सेक्युलरिजम की बातें करते रहते हैं. मुंबई हिंसा के बाद आझाद मैदान के वीडियो कई केबल नेटवर्क पर दिखाए गए.. कौन दिखा रहा हैं, क्यों दिखा रहा हैं .. इनकी क्या मंशा हैं क्या पुलिस इन बातों से अनजान हैं। जिस तरहके वीडियो देखकर आझाद मैदान पर लोग इकठ्ठा हुए क्या उसी तरह से अब लोग गिरगांव चौपाटी पर इकठ्ठा होंगे। सोशल फैब्रिक की बात करने वाले तमाम लोग ऐसे वक्त पर अंदर से या तो हिंदू हो जाते हैं या फिर मुसलमान या फिर उस धर्म से उससे वो होते हैं... जो पब्लिकली कुछ नहीं कह सकते वो सेक्युलर हो जाते हैं।
आझाद मैदान में हुई हिंसा के बाद खास करके पुलिस के मोरल पर असर पडा हैं। मैने कई पुलिसवालों के साथ बात की हैं, लगभग सारे पुलिसवाले इस वक्त गुस्से और बदले की आग में जल रहे हैं। कुछ गुंडों ने की हुई हिंसा की गाज किसी समुदाय पर पड सकती हैं। ऐसे वक्त ये सरकार की जिम्मेदारी हैं की वो अपनी इस फोर्स की काऊंसलिंग करे। उनके गुस्से को समझे। मंगलवार को राज ठाकरे की रैली में राज ठाकरे मराठी के मुद्दे से निकलकर हिंदुत्व के मुद्दे पर शिफ्ट हो जाएंगे, 92 के दंगों के बाद शिवसेनाप्रमुख बाल ठाकरे ने भी इसी तरह से कदम उठाए थे..बाल ठाकरे के तब के भाषण अगर सुने तो समझ में आएगा की कैसे सिनिअर ठाकरे ने पुलिस के ढलते मनोबल के अपनी ताकत, ढाल बना लिया था, र उसी के बल पर उन्होंने अपनी दहशत मुंबई में कायम की। राज चाचा के नक्शेकदमों पर चल पडे हैं।
राज को इस रैली के लिए मुख्यमंत्री से भी सपोर्ट मिलेगा ये बात भी साफ हैं। ऐसे में मामले को राजनीतिक रंग तो चढेगा ही। राज गृहमंत्री आर आर पाटील के खिलाफ मोर्चा निकाल रहे हैं, सरकार के खिलाफ नहीं... यहीं बात पृथ्वीराज चव्हाण को भी चाहीए। इसलिए एक तरफ पुलिस रैली पर पाबंदी की बात कर रही हैं वहीं पृथ्वीराज चव्हाण ने राज की रैली को हरी झंडी दे दी हैं। राज के माध्यम से पृथ्वीराज चव्हाण एनसीपी पर भी नकेल कसने की कोशीश कर रहे हैं।
मंगलवार की रैली को सफल बनाने के लिए राज ने अपने कार्यकर्ताओं को धमकी ही दी रखी हैं। अगर मोर्चा में लोग नहीं आए तो नए लोग - नई टीम बनाने की धमकी राज ने अपने कार्यकर्ताओं को दी हैं। राज ने अपना रूख साफ किया हैं, पत्ते भी कल खुल जाएंगे.. सरकार की नाकामी मुंबई में एक और दहशत को जन्म देने जा रही हैं... इतिहास अपने आप को दोहराते रहते हैं, पुरानी गलतीयों से हम कुछ सींखते नहीं हैं। अमन की बात करते करते हम ऐसी शक्तीयों को पनपने देते हैं जो पता हैं कि कल जाकर हमारे स्वतंत्रता पर हमला करने वाली हैं.. वक्त की जरूरत बताकर आज भले ही हम इन बातों को नजरअंदाज कर दे लेकिन शाय़द भविष्य में हमें इन घटनाओं के लिए जवाब देने पडेंगे। राज रैली करके निकल जाएंगे.. और हमें भविष्य में इस सोशल फैब्रिक को सीते बैठना पडेगा।
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